"व्यंग बाण
"एक चुप सौ सुख "
एक कोशिश है ------यह मेरा पहला लेख है ,पहली बार लिखा है आप पढ़े और अपनी टिपण्णी दे ......
"एक चुप सौ सुख" - इस मुहावरे को मैं एक घटना के चित्रण की माध्यम से आपके सामने प्रस्तुत करने की चेष्टा कर रही हूँ। यह घटना हमारे समाज पर एक कटाक्ष हैं।
परिवार में अक्सर घर में छोटी-बड़ी बातें होती रहती थी। संयुक्त परिवार में काम अधिक होने के कारण, माँ कभी कभी कुछ ज्यादा ही बोल जाती थी। किन्तु पिता जी शांत स्वभाव और "एक चुप सौ सुख" विचारधारा के कट्टर समर्थक होने के कारण चुप रहने में ही अपनी भलाई समझते थे। पिता जी का कहना था कि जो व्यक्ति इस मुहावरे को अक्षरशः अपने जीवन में धारण कर लेता है, तो आधी मुसीबतों का निपटारा चुपचाप और पलक झपकते हो जाता है।
बात उस समय की है, जब मै 11वी कक्षा की छात्रा थी। मेरी वार्षिक परीक्षाएं चल रही थी। अंतिम परीक्षा अंग्रेजी की थी। मैं अंतिम प्रश्न का उत्तर लिख रही थी, आखरी आधा घंटा अभी भी बचा था और मेरा पेपर लगभग पूरा हो चूका था, मैं अध्यापिका से पुछकर फ्रेश होने के लिए बाथरूम का बहाना बना कर बाहर निकल आई, जो प्रिंसिपल ऑफिस से आगे था। जैसे ही मैं वहां पहुची, पास के कमरे से कुछ लोगो के फुसफुसाने की आवाज सुनाई दी। कमरा पूरी तरह बंद था, जिज्ञाषावश, ताला बंद करने वाले सुराख से मैंने झाँक कर देखा तो पता चला, उस कमरे में कुछ बच्चे को नक़ल करवाई जा रही थी और नक़ल करवाने वाले और कोई नहीं, मेरे स्कूल के प्रधानाचार्य ही थे। यह देख कर मुझे बहुत ही गुस्सा आया और थोडा डर भी लग रहा था। पल भर में ना जाने कितने विचार घूमने लगे, फिर पिता जी की कही बात याद आई, एक चुप सौ सुख। और मैं वहां से तुरंत ही चली आई। चूँकि मेरा पेपर पहले ही पूरा हो चुका था, बस रिविजन बाकी था। उसे पूरा कर, जल्दी से मैंने कापी जमा कर दी और घर आकर यह बात मैंने पिता जी को बताई। इस पर पिता जी ने कहा, तुम्हारे प्रधानाचार्य भविष्य के ऐसे अध्यापक तैयार कर रहे हैं जो उनके कार्यो को आगे बढ़ाएंगे। मुझे इस बात पर आश्चर्य नहीं होगा कि देश के कुछ भावी नेता तुम्हारे स्कूल से ही निकलें। कुछ समय पूर्व शिक्षक दिवस पर प्रधानाचार्य ने नैतिक शिक्षा पर जोर दिया था। उस समय मुझे 'गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागो पाय, बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय' दोहा याद आ रहा था। और प्रधानाचार्य द्वारा नक़ल कराये जाने की घटना के बाद मुझे 'मुह में राम, बगर में छुरी' दोहा याद आया। अभी तक मेरे स्कूल से कोई नेता बन कर तो नहीं निकला लेकिन आज कल के नेताओ को देखकर यही लगता है की वो मेरे प्रधानाचार्य जैसे व्यतिक्त्व से बहुत प्रभावित रहे होंगे। और मुझे इस बात पर आश्चर्य नहीं होगा यदि इन भ्रष्ट नेताओं ने भी ऐसे ही बंद कमरे में नक़ल कर के परीक्षाएं पास की हों।
किसी भी मनुष्य 'एक चुप सौ सुख' कथन, परिस्थिति को देखकर अपनाना चाहिए। मेरे पिता ने घर पर यह मुहावरा अपना कर, घर में सुख-शान्ति को कायम रखा है। मैने भी चुप रहने की महत्ता को भली प्रकार जान लिया है। इसी का अनुसरण कर आज सुखी हूँ।
अक्सर लोग इस तरह की घटनाओ को नजर अंदाज कर देते है, क्योंकि वह नहीं चाहते की उन्हें बेवजह की मुसीबतों का सामना करना पडें और "एक चुप सौ सुख" मन्त्र का जाप करते हुए सुख की परम सुख पाते है।
'प्रेमलता (नीलू )
"एक चुप सौ सुख "
एक कोशिश है ------यह मेरा पहला लेख है ,पहली बार लिखा है आप पढ़े और अपनी टिपण्णी दे ......
"एक चुप सौ सुख" - इस मुहावरे को मैं एक घटना के चित्रण की माध्यम से आपके सामने प्रस्तुत करने की चेष्टा कर रही हूँ। यह घटना हमारे समाज पर एक कटाक्ष हैं।
परिवार में अक्सर घर में छोटी-बड़ी बातें होती रहती थी। संयुक्त परिवार में काम अधिक होने के कारण, माँ कभी कभी कुछ ज्यादा ही बोल जाती थी। किन्तु पिता जी शांत स्वभाव और "एक चुप सौ सुख" विचारधारा के कट्टर समर्थक होने के कारण चुप रहने में ही अपनी भलाई समझते थे। पिता जी का कहना था कि जो व्यक्ति इस मुहावरे को अक्षरशः अपने जीवन में धारण कर लेता है, तो आधी मुसीबतों का निपटारा चुपचाप और पलक झपकते हो जाता है।
बात उस समय की है, जब मै 11वी कक्षा की छात्रा थी। मेरी वार्षिक परीक्षाएं चल रही थी। अंतिम परीक्षा अंग्रेजी की थी। मैं अंतिम प्रश्न का उत्तर लिख रही थी, आखरी आधा घंटा अभी भी बचा था और मेरा पेपर लगभग पूरा हो चूका था, मैं अध्यापिका से पुछकर फ्रेश होने के लिए बाथरूम का बहाना बना कर बाहर निकल आई, जो प्रिंसिपल ऑफिस से आगे था। जैसे ही मैं वहां पहुची, पास के कमरे से कुछ लोगो के फुसफुसाने की आवाज सुनाई दी। कमरा पूरी तरह बंद था, जिज्ञाषावश, ताला बंद करने वाले सुराख से मैंने झाँक कर देखा तो पता चला, उस कमरे में कुछ बच्चे को नक़ल करवाई जा रही थी और नक़ल करवाने वाले और कोई नहीं, मेरे स्कूल के प्रधानाचार्य ही थे। यह देख कर मुझे बहुत ही गुस्सा आया और थोडा डर भी लग रहा था। पल भर में ना जाने कितने विचार घूमने लगे, फिर पिता जी की कही बात याद आई, एक चुप सौ सुख। और मैं वहां से तुरंत ही चली आई। चूँकि मेरा पेपर पहले ही पूरा हो चुका था, बस रिविजन बाकी था। उसे पूरा कर, जल्दी से मैंने कापी जमा कर दी और घर आकर यह बात मैंने पिता जी को बताई। इस पर पिता जी ने कहा, तुम्हारे प्रधानाचार्य भविष्य के ऐसे अध्यापक तैयार कर रहे हैं जो उनके कार्यो को आगे बढ़ाएंगे। मुझे इस बात पर आश्चर्य नहीं होगा कि देश के कुछ भावी नेता तुम्हारे स्कूल से ही निकलें। कुछ समय पूर्व शिक्षक दिवस पर प्रधानाचार्य ने नैतिक शिक्षा पर जोर दिया था। उस समय मुझे 'गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागो पाय, बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय' दोहा याद आ रहा था। और प्रधानाचार्य द्वारा नक़ल कराये जाने की घटना के बाद मुझे 'मुह में राम, बगर में छुरी' दोहा याद आया। अभी तक मेरे स्कूल से कोई नेता बन कर तो नहीं निकला लेकिन आज कल के नेताओ को देखकर यही लगता है की वो मेरे प्रधानाचार्य जैसे व्यतिक्त्व से बहुत प्रभावित रहे होंगे। और मुझे इस बात पर आश्चर्य नहीं होगा यदि इन भ्रष्ट नेताओं ने भी ऐसे ही बंद कमरे में नक़ल कर के परीक्षाएं पास की हों।
किसी भी मनुष्य 'एक चुप सौ सुख' कथन, परिस्थिति को देखकर अपनाना चाहिए। मेरे पिता ने घर पर यह मुहावरा अपना कर, घर में सुख-शान्ति को कायम रखा है। मैने भी चुप रहने की महत्ता को भली प्रकार जान लिया है। इसी का अनुसरण कर आज सुखी हूँ।
अक्सर लोग इस तरह की घटनाओ को नजर अंदाज कर देते है, क्योंकि वह नहीं चाहते की उन्हें बेवजह की मुसीबतों का सामना करना पडें और "एक चुप सौ सुख" मन्त्र का जाप करते हुए सुख की परम सुख पाते है।
'प्रेमलता (नीलू )
कभी कभी इस एक चुप से ऐसी गलतियां भी हो जाती हैं की इतिहास माफ नहीं करता ...
ReplyDeleteDigambar jee aapka baahut bahut abhar
DeleteDigambar jee har baat ke do palu hote hai ek sahi aur dusra uske biprit,aaj ke mahol me aadmi chup rahna me hi apne ko mahfuj pata hai ,aur chup rahne me hi apne apko surakshit smjhata hai,,,,,,,
बहुत खूब
ReplyDeleteआज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
तुम मुझ पर ऐतबार करो ।
Dinesh parikh jee dil se aapka shukriya ,,,,,,
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